मंगलवार, 1 मार्च 2011

पूरी तरह टूट चुका है मध्यप्रदेश का अन्नदाता

मध्यप्रदेश राज्य में खुशहाली के दावे करने वाली सरकार विधानसभा में मान रही है कि 86 दिन में 136 किसान मौत को गले लगा चुके हैं। दो साल के आकड़ों पर नजर डालें, तो 400 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। सरकार के उपेक्षित रवैये से मध्यप्रदेश का अन्नदाता पूरी तरह टूट चुका है, हताश हो चुका है। किसान को लगने लगा है कि उसके वोटों से चुनकर आई सरकार दावे कितने भी क्यों न कर ले, लेकिन उसकी मुश्किलों को हल करने की नीयत सरकार की नहीं है।
भारत की आत्मा किसानों में वास करती है। पिछले महीने मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय भी सरकार से सवाल कर चुका है कि किसान जान क्यों दे रहे हैं? जाहिर है, सरकार को पता है कि किसान जीने की बजाय मरना बेहतर क्यों समझ रहा है? सरकार को उसकी जर्जर होती जिंदगी के बारे में पता है, लेकिन कुछ-कुछ करने की मंशा कहीं नजर नहीं आ रही। कर्जे के बोझ में दबे किसान को उबारने के लिए कोई कदम नहीं उठाए जा रहे। नकली खाद-बीज और कीटनाशक धड़ल्ले से बिक रहा है, लेकिन उसे रोकने वाला कोई नहीं। शीतलहर और पाले ने किसानों की आशाओं पर पानी फेर दिया, लेकिन उसकी सुध लेने की परवाह सरकार को नहीं है। किसानों के चेहरे पर मुस्कराहट लाने की घोषणा चुनाव से पहले भी की गई थी और दो सालों से आश्वासनों का झुनझुना तो बजाया जा रहा है, लेकिन किसानों को राहत नहीं मिल पा रही। इसके कारणों पर नजर डाली जाए, तो पता चल जाएगा कि सरकार की प्राथमिकताएं किसान नहीं कोई "और" है। सरकार की प्राथमिकता जमीन जोतने वाले किसान से अधिक जमीनों पर कब्जा कर बेचने वाले भू-माफिया के बचाव की नजर आती है। किसान कर्जे के बोझ में दबे हैं, लेकिन उबारने की बजाय सरकार यदि सूदखोरों के साथ ही खड़ी नजर आए, तो उन्हें बचाने कौन आएगा? मुख्यमंत्री किसानों के लिए मुआवजे का ऎलान करते हैं, लेकिन मुआवजे के लिए भी किसानों को तरसना पड़ रहा है। राज्य की नौकरशाही इतनी स्वच्छन्द हो चुकी है कि उसे किसी से डर नहीं लगता। न उसे सरकारी घोषणाओं पर अमल की परवाह है और न ही अपने कर्तव्यों की! इसे देश की त्रासदी ही कहा जाएगा कि किसानों के वोटों से बनी सरकारें सत्ता में आते ही किसानों को भूल जाती हैं। यही कारण है कि आजादी के बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का 55 फीसदी योगदान आज 15 फीसदी तक सिमटकर रह गया है। मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसे लगातार दूसरी बार सत्ता की सीढियों तक पहुंचाने वाला किसान अगर त्रस्त है, तो खुशहाली और विकास के उसके तमाम दावे खोखले ही माने जाएंगे। कांग्रेस शासित राज्यों में किसानों की आत्महत्या का मामला जोर-शोर से उठाने वाली भाजपा के शीषस्थ नेतृत्व को भी मध्यप्रदेश सरकार से इस मुद्दे पर जवाब-तलब करना चाहिए। भारत हो, मध्यप्रदेश या राजस्थान, "चमकते" नजर तभी आएंगे, जब किसान खुशहाल होंगे।

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