गुरुवार, 15 सितंबर 2011

धान के कटोरे से गायब हुई 50 प्रजातियां

-लेट वेरायटी की फसलें नहीं लेते किसान
-शासन की प्रमाणित बीजों पर ही अब भरोसा
धान का कटोरा कहलाने वाले छत्तीसगढ़ प्रदेश से पारंपरिक धान की 40-50 प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। कृषि प्रधान राज्य के किसान पिछले कई वर्षो से लेट वेरायटी की एक भी परंपरागत फसलें नहीं ले रहे हैं। अधिक उत्पादन के कारण किसानों को कृषि विभाग से मिलने वाली प्रमाणित बीजों प ही अब भरोसा है।
छत्तीसगढ़ के किसान खरीफ और रबी सीजन में धान उत्पादन कर अपना जीवन-याप करते हैं। करीब एक दशक पहले तक किसानों को पारंपरिक धान पर ज्यादा भरोसा था। लिहाजा, लेट वेरायटी होने के बावजूद किसान अपने खेतों में काली मूंछ, दुबराज, जवांफूल सहित अन्य प्रजातियों के धान की बुआई करते थे। वहीं मिंजाई के समय ही उसी फसल का कुछ हिस्सा निकालकर आगामी सीजन के लिए बीज भी इकट्ठा कर लेते थे। ऐसे में कृषि विभाग से मिलने वाली प्रमाणित बीजों की खपत बहुत कम थी, जबकि अब शासन से मिलने वाला वही प्रमाणित बीज किसानों की पहली पसंद बन चुका है। इसकी प्रमुख वजह यह मानी जा रही है कि अल्पवर्षा के चलते ज्यादातर किसान पिछले कुछ सालों से लंबी अवधि के धान नहीं लगा रहें हैं, इससे स्थानीय विशेषता वाली चावल की किस्में धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। कृषि विभाग के अनुसार किसान, अरली वेरायटी का आईआर 64, स्वर्णा, महामाया, करमा मासुरी आदि ज्यादा उपयोग में ला रहे हैं, इसकी प्रमुख वजह कम समय में ज्यादा उत्पादन होना है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार जलवायु परिवर्तन का असर इंसान और पशु-पक्षियों के अलावा फसलों पर होता है। अरली वेरायटी की फसल 75 से 80 दिन में तैयार हो जाती है, जिसकी सिंचाई के लिए पानी की कम आवश्यकता होती है। वहीं अल्प वर्षा से लेट वेरायटी की परंपरागत धान के पौधों में बालियां आने व पकने के समय पानी की कमीं से उत्पादन प्रभावित होने का खतरा बना रहता है। उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के काली मूंछ, जीरा शंकर, दुबराज, मासूरी और जवांफूल चावल को देश ही नहीं बल्कि विश्व भर में काफी पसंद किया जाता है, लेकिन यह धान लगाने से किसान अब कतरा रहे हैं। इसका प्रमुख कारण सिंचाई के स्त्रोतों की कमीं को बताया जा रहा है। कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार एक ओर जहां मानसूनी बारिश में कमी आई है, वहीं दूसरी ओर जमीन लेवल के पानी का स्तर गिरने से नहर, नलकूप और ट्यूबवेल से भी पूरा पानी नहीं मिल रहा। नतीजतन, 3 से 4 फीट तक ऊंची मेढ़ बनाकर पानी भरने वाली पद्धति से धान पैदा करने में किसानों को दिक्कतें हो रही हैं। ऐसे में परंपरागत धान की प्रजाति काली मूंछ, जीरा शंकर दुबराज सहित 40-50 अन्य प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं।

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